ज़िद्द और आईना
तो मैं "ज़िद्द" के साथ चला जा रहा था । हम काफ़ी समय से साथ चल रहे थे, शायद कुछ साल हो चुके थे । ये जो साल हमने साथ गुज़ारे थे वो कुछ ज्यादा ही लम्बे थे, हाँ मतलब इस सफर की शुरुवात मैंने और "ज़िद्द" ने साथ ही की थी मगर अब ऐसा लगता था कि ये सफर खत्म होने का नाम ही नहीं लेता । जब सफर शुरू हुआ था तब तो हम बहुत करीब थे, एक दूजे से बहुत जुड़े जुड़े से थे हम । और आज, कुछ साल बीत जाने के बाद, "ज़िद्द" तो जैसे कुछ बोलती ही नहीं । बस गुम-सुम सी है साथ। उसका साथ लाज़मी था क्युकि उसने मेरा हाथ पकड़ रखा था । सफर शुरू हुआ था एक मंज़िल के लिए, कि एक दिन इसी रस्ते पर चलते चलते हमे वो मंज़िल हासिल होगी । मेरा मानना था कि वक़्त लगेगा हमे, पर अगर हमने धीरज रखा तो मंज़िल का मिलना उतना ही लाज़मी था जितना रात का सुबह से मिलना होता है । तो बस, "ज़िद्द" ने मेरा हाथ थामा और हम चल दिए, एक ऐसे रस्ते पर जिसका कोई अंदाज़ा नहीं था मुझे। एक ऐसे रस्ते पर जिसका कोई नाप नहीं था मेरे पास, और ना ही अंदाज़ा था उस पर आने वाले मोड़ों का । खैर हौसला बहुत था क्युकि "ज़िद्द" ने कभी मना नहीं किया