दो शब्द
जहाँ बारिशों में खिलते हैं कमल उम्मीदों के,
उसी दलदल में सदाबहार बोने चला हूँ मैं ।
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बरखा की एक बूँद है, जो धरा पर बिखरी नहीं,
चांदनी में ओस बन, वो रेत में लिपटी नहीं ।
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किसी शाम या हो सुबह फिर, कि मैं तेरे घर आऊं,
साथ थाम कर संग चल देना-
तेरी आँखों में मैं घिर आऊं ।
कम आसान उस राह पर अगर कभी मैं थक जाऊ,
मधुशाला मुझे दिखा तू देना-
जो मैं गिरते गिरते उठ जाऊ ।
अगर मगर मैं मधुशाला में, थोड़ी पी कर ढह जाऊ,
हाथ थाम कर कमर पकड़ना,
शयद तेरी छू से मैं जग जाऊ ।
और जगा कर तनिक तू कहना- तेरी हीर मैं हो जाऊ,
पहले किसी सहारे बिठा तू देना,
कि- मैं जागते जागते न गिर जाऊ !
हो नशा उस मदिरा का, या तेरी आँखों में मैं खो जाऊ,
तू बस रंग बिरंगे किस्से कहना-
कि मैं तेरे हाव भाव में राम जाऊ ।
बने अगर तू दिनकर मेरी, तो कोई फूल मैं बन जाऊ,
भोर हुए तुझे जब भी देखु,
रह रह कर मैं खिल जाऊ ।
हर शाम को तेरे साथ कि गरम चाय मैं हो जाऊ,
तेरी मीठी हसी देख कर,
मैं घुल कर चीनी हो जाऊ ।
एक बार बस बता तू देना, की मैं तेरे हो जाऊ,
हाथ बाँध कर पकड़ तू लेना-
कि बस तेरा ही मैं रह जाऊ ।
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