ज़िद्द और आईना




तो मैं "ज़िद्द" के साथ चला जा रहा था । हम काफ़ी समय से साथ चल रहे थे, शायद कुछ साल हो चुके थे । ये जो साल हमने साथ गुज़ारे थे वो कुछ ज्यादा ही लम्बे थे, हाँ मतलब इस सफर की शुरुवात मैंने और "ज़िद्द" ने साथ ही की थी मगर अब ऐसा लगता था कि ये सफर खत्म होने का नाम ही नहीं लेता । जब सफर शुरू हुआ था तब तो हम बहुत करीब थे, एक दूजे से बहुत जुड़े जुड़े से थे हम । और आज, कुछ साल बीत जाने के बाद, "ज़िद्द" तो जैसे कुछ बोलती ही नहीं । बस गुम-सुम सी है साथ। उसका साथ लाज़मी था क्युकि उसने मेरा हाथ पकड़ रखा था ।


सफर शुरू हुआ था एक मंज़िल के लिए, कि एक दिन इसी रस्ते पर चलते चलते हमे वो मंज़िल हासिल होगी । मेरा मानना था कि वक़्त लगेगा हमे, पर अगर हमने धीरज रखा तो मंज़िल का मिलना उतना ही लाज़मी था जितना रात का सुबह से मिलना होता है । तो बस, "ज़िद्द" ने मेरा हाथ थामा और हम चल दिए, एक ऐसे रस्ते पर जिसका कोई अंदाज़ा नहीं था मुझे। एक ऐसे रस्ते पर जिसका कोई नाप नहीं था मेरे पास, और ना ही अंदाज़ा था उस पर आने वाले मोड़ों का । खैर हौसला बहुत था क्युकि "ज़िद्द" ने कभी मना नहीं किया साथ देने से । मैं जब भी पूछता कि - क्या हमे और आगे जाना चाहिए ??? तो वो बस आपना सिर हिला देती । उसका साथ तो वैसे ही सौभाग्य की बात थी मगर उसकी हामी तो जैसे मेरे थके कदमों में जान फूक देती थी । और मैं फिर से उसी जोश के साथ चलने लगता जिससे शुरू किया था।


मगर आज, आज कुछ अलग था । आज पहली दफा इस रस्ते में किसी से मुलाकात हुई । आज हमारी मुलाकात "आईने" से हुई । बड़ा ही कड़वे शब्द का इंसान है "आइना", बोलता तो कड़वा है मगर अफोस की बात ये है कि जो बोलता है सच ही बोलता है । आज जब "आइना" मिला तो उसने मुझसे एक सवाल किया ।


उसने पूछा - कब तक इस लाश को आपने साथ ढोते रहोगे ?

मैंने चौंक कर कहा- कोनसी लाश ? 

"आइना" बोला कुछ नहीं मगर निगाहें "ज़िद्द" की तरफ कर लीं । "ज़िद्द" मुझे देख कर मुस्कुरा रही थी। मैंने थोड़ा गरम होकर "आईने" को जवाब दिया- ये कोई लाश नहीं है समझे ! ये तो साथी है मेरी इस सफर की ।

"आइना" मुस्कुराया और बोला कि- कौनसा सफर और कैसा सफर ? तुम्हारे सफर की मंज़िल क्या है आखिर ?

मैंने कहा कि- मंज़िल ? वो तो बस आ ही जाएगी कुछ देर में ! बस थोड़ी ही दूर तो है ।

"आइना" फिर मुस्कुराया, उसने पूछा कि- अच्छा तुम्हे अपनी मंज़िल का पत्ता पता है ?

मैं चुप था ।

तो इस बार "आइना" ठहाका लगा कर हँसा और बोला कि- अच्छा तुम्हे ये तो पता होगा ना की तुम्हारी मंज़िल दिखती कैसी है ?

मैं फिर चुप था ।

अब "आइना" हस्सी से लोट-पोट होने लगा। थोड़ा शर्मिंदा होकर मैंने पूछा कि- अच्छा भाई तुम ही बात दो हमारी मंज़िल कैसी दिखती है ?

"आइना" थोड़ा रुका और जवाब दिया- तुम्हारी मंज़िल तो तुम्हारे साथ ही थी । मगर तुम कभी देखा ही नहीं । याद है तुम्हारे सफर में कुछ नदियाँ आयी थीं, कुछ बरसातें, वो कुछ ऊँचे-निचे टेड़े-मेढे रस्ते, वो समुन्दर के किनारे जिन पर रुकना तुमने ज़रूरी नहीं समझा था । याद करो वो तारों भरी रात जब तुमने एक पल को सोचा तो था मगर रुकना ज़रूरी नहीं समझा। तुम तो बस लगे हुए थे इस लाश को ढोने में ।

मगर ये कोई लाश नहीं है । ये तो हमसफ़र है मेरी ।

"आइना" मुस्कुराया और बोला कि- एक बार फिरसे देखो।

मैं जब मुड़ा तो मेरे सारे होश उड़ गए । जितने तारे आसमा में होते हो उससे ज्यादा दिये बुझ गए मेरे मन में ।

एक लाश मेरा हाथ थामे हुए थीं । जब पीछे देखा तो घसीटने के निशान साफ़ दिखते थे । जितना पीछे तक का मैं देख सकता था मुझे बस वो निशान ही नज़र आ रहे थे । जब मैंने उस सफ़ेद चेहरे से "आईने" को देखा तो वो अब भी मुस्कुरा रहा था । ज्यादा कुछ तो नहीं बोल सका मैं मगर सिर्फ इतना ही पूछ पाया कि- ये कब हुआ ?

बहुत पहले ही - उसने जवाब दिया ।

सोच कर मैंने पूछा कि- तो वो क्या था जब मैं पूछता था कि- हमे आगे जाना चाहिए ? तब तो वो जवाब देती थी ।

"आइना" बोला- क्या वो सही में बोलती थी ?

मेरा रंग तो पहले ही उड़ चुका था मगर इस बार तो हवा हो गया मैं । "ज़िद्द" तो कभी जवाब देती ही नहीं थी, वो तो बस सिर हिला कर हामी भर्ती थी ।

"आइना" बोला- वो तू गूंगी और बेहरी थी । उसने तो कभी तुम्हे जवाब दिया ही नहीं । उसने तो कभी तुम्हारा सवाल सुना ही नहीं ।

मैंने थोड़ा उछट कर कहा- हाँ लेकिन हाथ तो उसने ही पकड़ा था मेरा !!!

"आइना" मुस्कुराया और बोला कि- एक बार फिरसे देख लो ।

हिम्मत तो नहीं थी, मगर मैं फिरसे मुड़ गया ।

"ज़िद्द" या यूँ कहूं की "ज़िद्द" की लाश ने मेरा हाथ पकड़ा ही नहीं था । वो तो मैंने ही उस लाश का हाथ थाम रखा था । और घसीट रहा था उसे ऐसे सफर पर जिसका नाप नहीं था मुझे । मंज़िल का पत्ता नहीं था और उसी की की अंधी तलाश में था । भटक रहा था ऐसे सफर पर जिसकी मंज़िल कि पहचान भी नहीं थी मुझे । या यूँ कहीं की "मंज़िल" तो थी बस रास्ता नहीं मिल रहा था ।

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